एक साल और चला गया. निरंतर चलते समय को दायरों में बाँध कर साल-महीने जो बना दिए हैं. कहते हैं की जिसे पकड़ना चाहिए उसे पकडते नहीं और जिसे छोड़ना चाहिए उसे छोडते नहीं. सिर्फ समय पर ही पकड़ बनती नहीं. जीवन में कुछ नए अनुभव और कुछ स्मृतियाँ जोड़ कर विदा ले गया यह वर्ष भी. समय तो निरंतर चलता रहता है, हम ही अपनी आसानी के लिए इसके पड़ाव निर्धारित कर देते हैं.
इस वर्ष जो कुछ पाया वह निश्चित ही बहुमूल्य है. जो खोया वह अमूल्य था. हर वर्ष ऐसी ही भावना दबे पाँव मन-मस्तिष्क में घर कर जाती है. कितना कुछ करना चाहता था और कितना अधूरा रह गया. जो किया वह नगण्य था और जो अधूरा रह गया उसमें से बहुत सा हमेशा के लिया अधूरा ही रहने वाला है.
बहुत से संकल्प हमेशा के लिया कचोटते रहेंगे क्योंकि वह कभी भी पूरे नहीं होने वाले हैं. आज भारी मन से उन सभी संकल्पों की स्मृतियों से मुक्ति चाहता हूँ. बहुत अच्छी तरह से जानता हूँ की अधूरे संकल्पों की टीस जीवन भर सालती रहेगी. फिर भी, शायद मन हल्का हो जाए. सब कुछ सिलसिलेवार, एक बार फिर से अपने निष्क्रय होने पर पराजय से सीखने की चेष्टा अवश्य करूंगा.
गत वर्ष कितना कुछ घट गया. समय चक्र चला तो प्रत्येक घटना के साथ जीवन को भी घटाता चला गया. कुछ घटनाएँ विस्मित कर गयीं और कुछ स्तब्ध. कुछ घटनायों में मेरा पात्र सशक्त रहा और कुछ जगह स्वयं ही विघटित होता रहा. जय पराजय से आगे कर्म होते हैं. जो कुछ हुआ उसे नियति या प्रारब्ध पर भी टाल सकता हूँ.
"कैसे हो?" , दबे स्वर से तीन महीने पहले पूछा था. जवाब मिला, "यारा! मौत नहीं आ रही है." इसके बाद संवाद मौन में बदल गया. मन किया कुछ कहूं. कह न सका. अब बहुत देर हो चुकी है. मुझे अब उनसे फिर से नहीं पूछना पड़ेगा, "कैसे हो?."
कोई वर्षों से नाराज़ है. इस वर्ष भी संवाद स्थापित ना हो सका. कैसे कहता कि दो मित्र एक से हालात से एक ही समय में गुजर सकते हैं . मुझे सब कुछ पता है और उसे कुछ भी नहीं. मित्रता भी ऐसी थी कि यहाँ से चाँद तक कोई हम सा नहीं था. बता नहीं सका कि मेरा तारों से पुराना नाता है. कुछ बिखरता मैंने देखा था और वैसा ही कुछ इस मित्र ने भी. समय भी लगभग एक ही. वह बिना कुछ जाने या कहे बहुत दूर चला गया और मेरा मौन टीस बन कर जीवन में स्थाई हो गयी . अब कभी कभार मन में यह ख्याल अवश्य आता है कि किसी दिन एक steinway grand भेज कर उसे चौंका दूं. पता नहीं आने वाले समय में यह हो सकेगा या नहीं?
कितनी आधी अधूरी यात्राओं में उलझा होता हूँ कि नया साल आ जाता है. साल बीतने से पहले कितने तोहफे और शुभकामनाएं दस्तक दे जातीं हैं. साल के अंतिम दिन जन्मदिन की शुभकामनायों के साथ उपहारों और फूलों का अम्बार भी लग जाता है. जीवन यात्रा का एक वर्ष और तमाम हो गया. अगले ही दिन वही मित्र और शुभचिंतक फिर से अहसास दिलाते हैं की नव वर्ष का स्वागत करो. गहरे अवसाद से निकल कर फिर से मन कुछ और पाने की इच्छा से उड़ान भरने लगता है.
आज तक कभी किसी को सभी कार्य पूर्ण करते देखा नहीं है. सब के सब बहुत कुछ अधूरा छोड़ कर जीते है और प्रस्थान भी कर जाते हैं. सबसुख भी कोई नहीं मिला. एक मुस्कान फिर से होठों पर ले कर मुझे भी फिर से इस यात्रा को जीना होगा.
चलो यह तय हो गया की आज सांझ को दोस्तों की महफ़िल सजानी ही पड़ेगी. बहुत देर हो गयी ठहाका लगाये हुए. आज शाम बहुत देर तक सब को हंसाने का मन बन गया है. नववर्ष की इससे अच्छी शुरुआत भला क्या होगी?