Saturday, September 5, 2009

क्षमा

"क्षमा करने से बंदी मुक्त होता है. क्षमादान के पश्चात पता चलता है कि वह बंदी आप स्वयं हैं."

यह सन्देश मेरे मोबाइल पर आया तब ऐसा लगा जैसे कोई झकझोर कर कह रहा हो कि मेरे जीवन में परिवर्तन की आवश्यकता आन पड़ी है. जीवन पर्यन्त यही मानता रहा हूँ कि क्षमा करने का अधिकार मेरे पास नहीं है, यह तो भगवान् के बस कि बात है.

क्षमा किस बात की ? मुझ में इतनी सामर्थ्य या शक्ति कभी रही ही नहीं कि मैं अपने जीवन में किसी के कर्म का मूल्यांकन कर सकूँ. कभी सही से जान ही ना सका कि कई लोगों का मेरे प्रति कुछ विशेष स्थितियों में किया गया व्यवहार द्वेषवश था या उनका दृष्टिकोण मेरे जीवन मूल्यों से अलग था.

फिर किस बात का मलाल करुँ ?

क्या जीवन में घटित कुछ विशेष घटनाओं को विस्मृत करने की प्रक्रिया को क्षमा कहते हैं? संभव है कि आधुनिक युग में इसी परिभाषा का प्रचलन हो.

स्मरणशक्ति से मार खा जाता हूँ. कुछ भी विस्मृत होता ही नहीं है. और तो और सभी मित्र इस गज जैसी स्मरणशक्ति का लोहा भी मानते है.

मैं एक साधारण जीव हूँ. शिव की सी क्षमता मुझ में नहीं है. मैं जीवन में आये विष को कंठ में नहीं रोक सका क्योंकि इस विष को मुख से नहीं अपितु नेत्रों और कानों से धारण किया है. सारा का सारा विष मस्तिष्क में जा कर अपना स्थान ग्रहण कर चुका है.

कर्मक्षेत्र में कोई योगेश्वर भी नहीं है जो गांडीव धरा पर रखने के दंड का ज्ञान दे सके. आज बहुत सी स्मृतियाँ बेमानी हो चुकी हैं. किसी भी ऐसे क्षण की स्मृति टीस बन कर उत्तेजित नहीं करती जिसे लोग क्षमायोग्य स्मृति कह सकें.

बहुत पहले किसी से अहंकारवश कह दिया था, "मेरे जीवन में सिर्फ मित्र हैं, कोई भी परिचित नहीं है. हर व्यक्ति में मुझे सिर्फ और सिर्फ मित्र दृष्टिगोचर होते हैं." वर्षों पूर्व के इस व्यक्तत्व के लिए मन में ग्लानि अवश्य है.

मेरे जीवन में संभवत: क्षमा नामक भावना का स्थान रिक्त ही रहने वाला है. इस अंहकार में जीवन का अर्थ खोजने की मेरी यात्रा को न तो तर्क से और न ही आस्था से कोई परिवर्तन ला सकता है.

वैसे अपराध के लिए दंड का प्रावधान होता है ना कि शब्दों की चाशनी में लिपटी क्षमा का. जिस दिन किसी एक भी व्यक्ति के कर्म या फिर नेत्रों में क्षमा का भाव दिखा, उस दिन मैं भी इस भावना को आत्मसात करने की चेष्टा अवश्य करूंगा.