Sunday, December 21, 2008

TRUTH

What is truth in a given situation? Most of the times we keep realizing on the different versions of narration about a particular incident or situation. The truth always means different things for different set of people. The perception is all that we come to know as truth. Truth is always hidden under the debris of biased perception and preconceived notions. What we, normally, know as truth is nothing more than a wonderful piece of fiction wrapped under the colourful packaged narration by others or by our own belief.

Saturday, June 7, 2008

The Search continues…..

The search has many meanings. Each meaning becomes clear with the passage of time. The greed of reaching a stage in life where the purpose is not only well defined but achieved as well. The true meaning of words spoken by fellow passengers in this journey called life is deceptive. I have struggled to decipher the hidden meanings of words people close to me speak and I must confess that most of the times I have failed.

I go deep in a shell and end up making a cocoon on my personality. The scared individual refuses to come out of this cocoon. The thick shell of the cocoon fossilizes and hardens to the extent that I suffocate and an artificial personality is visible to the world.

The real “me” is lost in the maze called words and actions. I hate myself for being influenced by the words and actions of the people with whom I am forced to interact, day in and day out. I look for independence from this impediment in my life. The influences make me shed blood and tears. None is visible but I know that one day I shall be, once again, ashamed of my weakness for being influenced by such acts of cowardice and deceit.

I wish I could wait for the inevitable and stop shedding a part of my soul day after day. It should happen once and not every moment when I am forced to cover myself in anticipation of an invisible assault. The scars on the soul are permanent and pain exists forever.

My efforts to become a content person have failed, as I do not know the meaning of being content.

Shall I give up the fight? No way! Very few people are incorrigibly optimists. I am one of them.

So, the effort for this search continues.



Saturday, May 31, 2008

क्या तारे मुझे याद रखेंगे?

सपने कई बार मनुष्य को असमंजस में डाल देते हैं। रात में आए सपने सुबह उठने पर जब याद रह जावें तब तो अजीब स्थिति पैदा हो जाती है। अनेक व्यक्ति सपना याद करके सन्न रह जाते हैं। मैं भी आज सुबह उठा तो रात का सपना याद कर अवाक रह गया। दो बार चाय पी कर भी शून्य में ही निहारता रह गया। अपने आस-पास सब कुछ अनजाना सा लगने लगा। ऐसा सपना पहली बार आया और मुझे झिंझोड़ कर चला गया।

अथाह सागर के बीचों-बीच अपने आप को पा कर डर सा गया। एक तरापा था और उस पर मैं अकेला ही था। पानी में उतरने में वैसे ही डर लगता है और मेरे पास तो पतवार भी नही थी। सागर भी बहुत शांत था। किसी भी किस्म की हवा भी नही चल रही थी। बस, दूर कही लहरों का शोर सुनाई पड़ रहा था। तरापा भी स्थिर था। आसमान साफ था और तारों की बस्तियां भी कई प्रकाश वर्ष दूर बसी नज़र आ रही थीं।

तारे देखने का शौक बचपन से ही रहा है। घर की छत पर गर्मियों में कई बार उनसे बातें भी तो की है। कई तारों को नाम भी देता था। पीपल के पेड़ के पीछे झुंड बना कर निकलने वाले तारों की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। रात के दूसरे पहर ही दर्शन देते थे। चौमासे में बादल ढक लेते थे इन चमकती बिन्दूयों को। ढीठ इतने की बादलों में से भी झाँक कर अपनी उपस्थिति जतला देते थे। मेरा इन सब से जीवन भर नाता बना रहा। पहले इनके झुंड को मैं नाम देता था पर बाद में खगोल विज्ञान पढ़ने के बाद पता चला की इन समूहों के नाम पहले ही रखे जा चुके हैं।

कल सपने में भी यही समूह, मेरे बरसों पुराने साथी, मुझसे घुप्प अंधेरे में बतियाते रहे। सब के नए नाम भूल कर उन्हें अपने बचपन में दिए नामों से पुकारता रहा। एक पल भी मन में नही आया की किसी को आवाज दूँ कि मुझे इस स्थिति से निकल कर किनारे लगा दें। भला बरसों पुराने मित्रों से मिलने पर समय और पीड़ा की भी किसी को परवाह होती है।

सुबह सो कर उठा तो रात को सपने में मिली तन्हाई से परेशान नही था। अफ़सोस इस बात का है कि अनजाने में ही सही पर कितने बरसों से मैंने अपने बचपन के साथियों से बात ही नही की है। अब महानगर में रहता हूँ। तारों और मेरे बीच धूल आ जाती है। इस धूल को छंटने में वक्त लगेगा।

मैं नही जानता की मैं इन तारों को कितने दिन और देख सकूंगा। ये टिमटिमाते मित्र, मेरे बहुत बाद, मेरे जैसे कई और प्रशंसक बनायेंगे। उनकी रचनात्मकता को अपने समूहों के रूप दिखा कर रिझां भी सकते है। कुछ से मेरे जैसा और कुछ से विज्ञान का सम्बन्ध बना लेंगे ।

यह सब लिखते हुए सपने का असर कम हो चला है। बस, एक ही बात मस्तिष्क में समझ नही आ रही है - "क्या तारे मुझे याद रखेंगे?"

Sunday, May 25, 2008

बबल या बुलबुला

बबल यानी बुलबुला। मैं बचपन से इस मरदूद को इसी नाम से बुलाता रहा हूँ। कभी- कभार लोगो के सामने इस नाम का प्रयोग कर बैठों तो सुसुरा भृकुटी तान लेता है। जैसे मेरे मित्र मेरी अन्य बातों के लिए मुझे बख्श देते है, वैसे ही ये साहेब भी हर बार थोड़ा सी नाराज़गी दिखा कर शांत हो जाते हैं। अब कई बरसों से फ़ोन पर ही बात होती है। सो उनका गुस्सा देखे भी अरसा हो जाता है।

क्या तजुर्बा नही किया इन्होने ? स्कूल के बाद मर्चेंट नेवी, रुड़की इंजीनियरिंग, और न जाने क्या-क्या और कहाँ-कहाँ अधूरे कोर्स नही किए। आखिरकार इतिहास पढने लगे। फिर प्रशासनिक सेवा में जाने का मन बनाया तो उनका इतिहास वहाँ भी दोहराया गया। एक दिन निश्चय किया और हो गए प्रबंध के छात्र। इस बार ठहर गए जनाब। आजकल थोड़े से अंग्रेज़ हो गए हैं। लंदन में रहने से अंदाज़ ही विदेशी हो गया है। हमे थोड़ा सा खुरचना पड़ता है, तब जा कर देसी आदमी अपनी औकात पर आता है।

एक अंदाज़ उनका हमेशा निराला रहा। स्त्री का सम्मान कोई उनसे सीखे। ताउम्र हर किसी से अपने प्रेम का इजहार करना बस उनके ही बस की बात है। मैंने जब भी इस पर पूछा तो जवाब यही मिला कि कामयाबी का प्रतिशत ७५% के लगभग है। हम दोनों एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं पर मित्रता ऐसी कि लोग रश्क करते है। उनके कई कार्य कलापों में मुझे भी शामिल होना ही पड़ता था।

कुछ दिन पहले, आधी रात को, फ़ोन करके कहने लगे कि तीन दिन के लिए दिल्ली आ रहे हैं और मेरे लिए एक दोपहर रख छोड़ी है। नींद में ही जवाब दिया कि हम पलकें बिछायें उनकी बाँट जोहेंगे। सब कुछ एक चलचित्र की तरह सामने आने लगा।

कितने साल बीत गए जब यूं ही थोड़ा सा समय देता था। चिट्ठियां लिख कर देने के लिए, कवितायें ढूँढ कर देने के लिए और अक्सर उसके सपनों को खुली आंखो से साकार करने को योजना बनाने के लिए। एक दिन बहुत जल्दी में था। आते ही मुझे बताया की उसका नया प्रेम थोड़ा साहित्यक तबियत का है। मुझे जितनी जल्दी हो सके कुछ ऐसा सुझाना था कि वह प्रभावित हो जाए। आग बबूला हो गया जब हम थोड़े से हल्के अंदाज़ में बोल पड़े थे। हर बार की तरह इस बार भी सीरिअस जो था। कहने लगा की तुम्हारी भाभी किसी अमृता प्रीतम को पढ़ती है, सो कुछ ऐसा बताओ की इम्प्रेस हो जाए। मुझे रसीदी टिकट का वो वाकया याद आ गया जिसमे इमरोज़ नें अमृता को अपने घर की चाबी दे कर कहा था, "जब कभी आओ तो लगे अपने घर आई हो।" बस, तपाक से यह आईडिया सुझा दिया जनाब को। इतना सुनना था की प्रवचन शुरू हो गया। "तुम बस ऐसे ही इश्क करना। घर की चाबी देते रहना। गलती से बगैर बताये आ गई और घर में कोई और मिल गई तब किस्सा शुरू होने से पहले ही खत्म।"

चलो, कुछ और सुझाते हैं। यही सोच कर उन्हें कई कवितायें और कुछ नई खरीदी हुई किताबें दिखा दीं। कमबख्त, किसी पर हाथ रख कर राजी न हुआ। सारा समय हमारी ही रम पी कर हमें आधुनिक प्रेम की परिभाषा समझाता रहा। उस दिन मैं उनकी नज़र में पूरी तरह नाकारा साबित हो गया।

ऐसा नही कि वे फिर नही आए। हर हफ्ते किसी नई दास्तान के साथ हाज़िर हो जाते थे। कभी तो ऐसा भी हुआ कि दो-दो प्रेम कहानियाँ एक साथ परवान चढ़ती नज़र आ जाती थी। एक दिन ऐसे ही दो अलग-अलग पत्र लिखने के बाद मुंह से निकल गया, "बुलबुले, तुम तो यार मंटो कि काली सलवार के पात्र से भी कहीं ऊपर की चीज़ हो।" दोनों चिट्ठियां उठा कर हमें घूर कर बोला, "यह अंट शंट क्या लगा रखी है? हम काली पीली सलवार वाली बेहनजियों मे दिलचस्पी नही लेते है।"

बुलबुले की शादी क्या हुई, बिल्कुल ही बदल गया। हम भी कभी नही चूके। जब भी मिलता यही कह देते थे, "बच्चे, अब तू पालतू हो गया है।" आँखें दिखा कर खीसें निपोरे देता था।

एक दोपहर उसके साथ फिर से मयखाने मे गुजार दी। दो घंटे बाद बोला, "माँ आ रहीं है मिलने के लिए।" जल्दी से जाम खत्म किया और माँ का इंतजार करने लगे। उनकी माँ से हमें बचपन से अपार स्नेह मिला है। वे आईं तो बुलबुले के होटल के कमरे मे महफिल जम गयी। अब वाइन की चुस्कियाँ ले कर हमने बुलबुले की चुस्कियाँ लेनी शुरू कर दी। बुलबुले की बेबसी पर सब हँसते रहे। माँ ने भी कह दिया, "कम मिलते हो। मिला करो। हमें भी हँसना अच्छा लगता है। तुम लोगों का बचपन और तरुणाई छूट गई हमसे। मिलते रहोगे तो हम भी तुम दोनों के कुछ राज़ जान कर खुश हो जायेंगे। वैसे दोनों के मिजाज़ अब बदल गए हैं। तुम अब बुलबुले सी मस्ती करने लगे हो।"

खैर, नाराज़ हो कर चला गया। पर सिंगल माल्ट की बोतल लाना भी नही भूला था।

कमबख्त ने फिर आधी रात को फ़ोन कर दिया। इस बार बहुत खुश हो कर कह रह था, "भइए, मज़ा आ गया। मैं तू बन गया। तू मैं बन गया।" बहुत कुछ कहता रहा। मैं चुप-चाप सुनता रहा। हँसता भी तो बहुत जोर से है।

क्या मैं, उस दोपहर, बुलबुले का बचपन और तरुणाई जी कर आया था? पता नहीं। मुखौटे अक्सर दोस्तों को भी भ्रम मे डाल देते है।

मुझे मालूम है बबल सच समझता है। मुखौटा लगाने में मेरी तरह माहिर नही है। इसलिए फ़ोन कर मुझे बहला रहा था सुसुरा।

Monday, May 19, 2008

जिसका जवाब न मिले वो निठल्ला चिंतन

क्या सभी घुम्मकड़ बिना ठहराव का जीवन जीते है ?

क्या घुमक्कड़ होना भोगोलिक दूरियों पर समय व्यतीत करना है?

क्या मन की उड़ान भोगोलिक दूरियों में विचरण करने से कम आंकनी चाहिए?

अस्थिर या चलायमान शब्द का प्रयोग करने में हिचक क्यों होती है?

आज एक प्रशन बारम्बार मस्तिष्क को भेदता हुआ पूछता है, "ये ठहराव होता क्या है?"

क्या ठहरा हुआ जल अपना स्वरूप खो कर आसपास को दूषित नही करता है?

क्या मनुष्य भी वृक्षों की भांति जड़ से बंधे होते है?

यदि मनुष्य की नियति वृक्ष सी नही होती फिर क्यों हर व्यक्ति को जड़ों की तलाश है?

क्या मनुष्य स्वभाव से ही घुम्मकड़ नही है?

यदि मनुष्य स्वाभाव से ही ऐसा है, फिर निर्वासन क्या है?

क्या ठहराव एक प्रकार की अवनति नही है?

क्या सभ्य समाज कभी इस तथाकथित ठहराव को अवनति मानेगा ?

क्या सभ्य समाज का अस्तित्व है?

उफ़! इतने सवाल ?

सवाल फिर भी जवाब मांगेगे परन्तु जवाब मुँह छुपाये रहेंगे।

बुद्धिजीवी जवाब मालूम होने का ढोंग भी कर सकते हैं।

कुछ नमूने इन सवालों पर हँस भी सकते हैं।

लेकिन, यह सब सवाल उचित जवाब की प्रतीक्षा में, ऐसे ही, सभ्यता की तरह दम तोड़ देंगे।

Saturday, May 17, 2008

The journey continues.................

I remember that when I started this blog I had confidently stated that this place is an asylum for me.

I offer my unconditional apologies to some friends as I have been proved foolish in shredding my earlier posts.

This blog was started not because of fear of living but for the joy life brings to me.

This is a sincere effort to show my gratitude to life and life forms. I, once again, consider it appropriate to mention that this sharing of thoughts is not a derivative of guilt.

I am here to share my thoughts and experiments in life. This is an effort of a faceless human to paint a picture of oneself.

The journey continues.................

Friday, May 9, 2008

क्या गिद्धों के आने का समय हो गया है?

कितनी भाग दौड़ रहती है बड़े शहरों में ? शोर की इन्तहा हो गई है। इस शोर में कानों को कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया है। क्या यह शोर किसी सन्नाटे की दस्तक तो नही ?

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मशीनों की तरह भागते मनुष्य, मशीने नही तो फिर और क्या है? सुबह मशीने ही सो कर उठती हैं और वह ही धड़-धड़ कर अपने अपने काम की जगह पहुँच जातीं हैं। सडकों में मशीनों पर सवार मशीनें जल्दी पहुँचने की चाह में एक दूसरे को रौंदने की कोशिश भी करती नज़र आतीं है।

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दफ्तर-दुकान, सभी जगह इन्ही मशीनों का कब्जा है। और तो और यह कारोबार भी मशीनों से ही करती नज़र आतीं है। सांझ होते ही यह मशीनें दौड़ पड़ती है उस तरफ़ जहाँ कभी इंसानों की बस्तियां होतीं थी। मशीनों से भरे घरों के मालिक भी मशीन ही तो हैं। कमबख्त, प्यार भी मशीनी अंदाज़ में हो रहा है। नई पौध लग रही है मशीनों की! यह और तेज़ भागेगी। इस भागम भाग में मानव जाती का सर्वनाश भी मशीनें ही देख रही हैं।
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अब शहर में सन्नाटा पाँव पसारने की तैयारी भी शायद कर चुका होगा। अब यहाँ कोई जीवित व्यक्ति नही रहता है। मुर्दों के बीच रहते हुये मैं भी तो उन्ही में शुमार हो गया हूँ। अंहकार भी मुर्दों जैसा ही है। बिल्कुल अकडा हुआ। कौन किन्ह कन्धों पर मरघट ले जाया जाएगा, यह भी कुछ तय नही है। सब के सब अपनी लाश को ख़ुद ही घसीटते हुए कभी घर, दुकान या दफ्तरों मैं मांस की सडांध फैला रहे है। कुछ लाशें यहाँ-वहाँ भटकती हुई भी नज़र आ जाती हैं। कुछ ऐसे भी चलते फिरते अजूबे हैं जो न मनुष्य हैं न मशीनें। इनका भगवान् ही मालिक! इनकी तमन्ना वैसे तो मशीन बनने की है, पर क्या पता यही लोग कोई उम्मीद बंधा दें।
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इस शहर में महामारी फैल चुकी है। क्या पता दूसरे शहरों का भी यही हाल हो?
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एक मुर्दा शरीर है जो मशीनों सा हो गया है। पर अब भी मानव बनने की न जाने क्यों इस बेजान में उम्मीद बाकी है। अक्सर सिहर उठती है यह मशीन और एक ही सवाल पूछती है - क्या गिद्धों के आने का समय हो गया है?