क्या सभी घुम्मकड़ बिना ठहराव का जीवन जीते है ?
क्या घुमक्कड़ होना भोगोलिक दूरियों पर समय व्यतीत करना है?
क्या मन की उड़ान भोगोलिक दूरियों में विचरण करने से कम आंकनी चाहिए?
अस्थिर या चलायमान शब्द का प्रयोग करने में हिचक क्यों होती है?
आज एक प्रशन बारम्बार मस्तिष्क को भेदता हुआ पूछता है, "ये ठहराव होता क्या है?"
क्या ठहरा हुआ जल अपना स्वरूप खो कर आसपास को दूषित नही करता है?
क्या मनुष्य भी वृक्षों की भांति जड़ से बंधे होते है?
यदि मनुष्य की नियति वृक्ष सी नही होती फिर क्यों हर व्यक्ति को जड़ों की तलाश है?
क्या मनुष्य स्वभाव से ही घुम्मकड़ नही है?
यदि मनुष्य स्वाभाव से ही ऐसा है, फिर निर्वासन क्या है?
क्या ठहराव एक प्रकार की अवनति नही है?
क्या सभ्य समाज कभी इस तथाकथित ठहराव को अवनति मानेगा ?
क्या सभ्य समाज का अस्तित्व है?
उफ़! इतने सवाल ?
सवाल फिर भी जवाब मांगेगे परन्तु जवाब मुँह छुपाये रहेंगे।
बुद्धिजीवी जवाब मालूम होने का ढोंग भी कर सकते हैं।
कुछ नमूने इन सवालों पर हँस भी सकते हैं।
लेकिन, यह सब सवाल उचित जवाब की प्रतीक्षा में, ऐसे ही, सभ्यता की तरह दम तोड़ देंगे।
Monday, May 19, 2008
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