Friday, May 9, 2008

क्या गिद्धों के आने का समय हो गया है?

कितनी भाग दौड़ रहती है बड़े शहरों में ? शोर की इन्तहा हो गई है। इस शोर में कानों को कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया है। क्या यह शोर किसी सन्नाटे की दस्तक तो नही ?

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मशीनों की तरह भागते मनुष्य, मशीने नही तो फिर और क्या है? सुबह मशीने ही सो कर उठती हैं और वह ही धड़-धड़ कर अपने अपने काम की जगह पहुँच जातीं हैं। सडकों में मशीनों पर सवार मशीनें जल्दी पहुँचने की चाह में एक दूसरे को रौंदने की कोशिश भी करती नज़र आतीं है।

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दफ्तर-दुकान, सभी जगह इन्ही मशीनों का कब्जा है। और तो और यह कारोबार भी मशीनों से ही करती नज़र आतीं है। सांझ होते ही यह मशीनें दौड़ पड़ती है उस तरफ़ जहाँ कभी इंसानों की बस्तियां होतीं थी। मशीनों से भरे घरों के मालिक भी मशीन ही तो हैं। कमबख्त, प्यार भी मशीनी अंदाज़ में हो रहा है। नई पौध लग रही है मशीनों की! यह और तेज़ भागेगी। इस भागम भाग में मानव जाती का सर्वनाश भी मशीनें ही देख रही हैं।
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अब शहर में सन्नाटा पाँव पसारने की तैयारी भी शायद कर चुका होगा। अब यहाँ कोई जीवित व्यक्ति नही रहता है। मुर्दों के बीच रहते हुये मैं भी तो उन्ही में शुमार हो गया हूँ। अंहकार भी मुर्दों जैसा ही है। बिल्कुल अकडा हुआ। कौन किन्ह कन्धों पर मरघट ले जाया जाएगा, यह भी कुछ तय नही है। सब के सब अपनी लाश को ख़ुद ही घसीटते हुए कभी घर, दुकान या दफ्तरों मैं मांस की सडांध फैला रहे है। कुछ लाशें यहाँ-वहाँ भटकती हुई भी नज़र आ जाती हैं। कुछ ऐसे भी चलते फिरते अजूबे हैं जो न मनुष्य हैं न मशीनें। इनका भगवान् ही मालिक! इनकी तमन्ना वैसे तो मशीन बनने की है, पर क्या पता यही लोग कोई उम्मीद बंधा दें।
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इस शहर में महामारी फैल चुकी है। क्या पता दूसरे शहरों का भी यही हाल हो?
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एक मुर्दा शरीर है जो मशीनों सा हो गया है। पर अब भी मानव बनने की न जाने क्यों इस बेजान में उम्मीद बाकी है। अक्सर सिहर उठती है यह मशीन और एक ही सवाल पूछती है - क्या गिद्धों के आने का समय हो गया है?

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