Sunday, May 25, 2008

बबल या बुलबुला

बबल यानी बुलबुला। मैं बचपन से इस मरदूद को इसी नाम से बुलाता रहा हूँ। कभी- कभार लोगो के सामने इस नाम का प्रयोग कर बैठों तो सुसुरा भृकुटी तान लेता है। जैसे मेरे मित्र मेरी अन्य बातों के लिए मुझे बख्श देते है, वैसे ही ये साहेब भी हर बार थोड़ा सी नाराज़गी दिखा कर शांत हो जाते हैं। अब कई बरसों से फ़ोन पर ही बात होती है। सो उनका गुस्सा देखे भी अरसा हो जाता है।

क्या तजुर्बा नही किया इन्होने ? स्कूल के बाद मर्चेंट नेवी, रुड़की इंजीनियरिंग, और न जाने क्या-क्या और कहाँ-कहाँ अधूरे कोर्स नही किए। आखिरकार इतिहास पढने लगे। फिर प्रशासनिक सेवा में जाने का मन बनाया तो उनका इतिहास वहाँ भी दोहराया गया। एक दिन निश्चय किया और हो गए प्रबंध के छात्र। इस बार ठहर गए जनाब। आजकल थोड़े से अंग्रेज़ हो गए हैं। लंदन में रहने से अंदाज़ ही विदेशी हो गया है। हमे थोड़ा सा खुरचना पड़ता है, तब जा कर देसी आदमी अपनी औकात पर आता है।

एक अंदाज़ उनका हमेशा निराला रहा। स्त्री का सम्मान कोई उनसे सीखे। ताउम्र हर किसी से अपने प्रेम का इजहार करना बस उनके ही बस की बात है। मैंने जब भी इस पर पूछा तो जवाब यही मिला कि कामयाबी का प्रतिशत ७५% के लगभग है। हम दोनों एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं पर मित्रता ऐसी कि लोग रश्क करते है। उनके कई कार्य कलापों में मुझे भी शामिल होना ही पड़ता था।

कुछ दिन पहले, आधी रात को, फ़ोन करके कहने लगे कि तीन दिन के लिए दिल्ली आ रहे हैं और मेरे लिए एक दोपहर रख छोड़ी है। नींद में ही जवाब दिया कि हम पलकें बिछायें उनकी बाँट जोहेंगे। सब कुछ एक चलचित्र की तरह सामने आने लगा।

कितने साल बीत गए जब यूं ही थोड़ा सा समय देता था। चिट्ठियां लिख कर देने के लिए, कवितायें ढूँढ कर देने के लिए और अक्सर उसके सपनों को खुली आंखो से साकार करने को योजना बनाने के लिए। एक दिन बहुत जल्दी में था। आते ही मुझे बताया की उसका नया प्रेम थोड़ा साहित्यक तबियत का है। मुझे जितनी जल्दी हो सके कुछ ऐसा सुझाना था कि वह प्रभावित हो जाए। आग बबूला हो गया जब हम थोड़े से हल्के अंदाज़ में बोल पड़े थे। हर बार की तरह इस बार भी सीरिअस जो था। कहने लगा की तुम्हारी भाभी किसी अमृता प्रीतम को पढ़ती है, सो कुछ ऐसा बताओ की इम्प्रेस हो जाए। मुझे रसीदी टिकट का वो वाकया याद आ गया जिसमे इमरोज़ नें अमृता को अपने घर की चाबी दे कर कहा था, "जब कभी आओ तो लगे अपने घर आई हो।" बस, तपाक से यह आईडिया सुझा दिया जनाब को। इतना सुनना था की प्रवचन शुरू हो गया। "तुम बस ऐसे ही इश्क करना। घर की चाबी देते रहना। गलती से बगैर बताये आ गई और घर में कोई और मिल गई तब किस्सा शुरू होने से पहले ही खत्म।"

चलो, कुछ और सुझाते हैं। यही सोच कर उन्हें कई कवितायें और कुछ नई खरीदी हुई किताबें दिखा दीं। कमबख्त, किसी पर हाथ रख कर राजी न हुआ। सारा समय हमारी ही रम पी कर हमें आधुनिक प्रेम की परिभाषा समझाता रहा। उस दिन मैं उनकी नज़र में पूरी तरह नाकारा साबित हो गया।

ऐसा नही कि वे फिर नही आए। हर हफ्ते किसी नई दास्तान के साथ हाज़िर हो जाते थे। कभी तो ऐसा भी हुआ कि दो-दो प्रेम कहानियाँ एक साथ परवान चढ़ती नज़र आ जाती थी। एक दिन ऐसे ही दो अलग-अलग पत्र लिखने के बाद मुंह से निकल गया, "बुलबुले, तुम तो यार मंटो कि काली सलवार के पात्र से भी कहीं ऊपर की चीज़ हो।" दोनों चिट्ठियां उठा कर हमें घूर कर बोला, "यह अंट शंट क्या लगा रखी है? हम काली पीली सलवार वाली बेहनजियों मे दिलचस्पी नही लेते है।"

बुलबुले की शादी क्या हुई, बिल्कुल ही बदल गया। हम भी कभी नही चूके। जब भी मिलता यही कह देते थे, "बच्चे, अब तू पालतू हो गया है।" आँखें दिखा कर खीसें निपोरे देता था।

एक दोपहर उसके साथ फिर से मयखाने मे गुजार दी। दो घंटे बाद बोला, "माँ आ रहीं है मिलने के लिए।" जल्दी से जाम खत्म किया और माँ का इंतजार करने लगे। उनकी माँ से हमें बचपन से अपार स्नेह मिला है। वे आईं तो बुलबुले के होटल के कमरे मे महफिल जम गयी। अब वाइन की चुस्कियाँ ले कर हमने बुलबुले की चुस्कियाँ लेनी शुरू कर दी। बुलबुले की बेबसी पर सब हँसते रहे। माँ ने भी कह दिया, "कम मिलते हो। मिला करो। हमें भी हँसना अच्छा लगता है। तुम लोगों का बचपन और तरुणाई छूट गई हमसे। मिलते रहोगे तो हम भी तुम दोनों के कुछ राज़ जान कर खुश हो जायेंगे। वैसे दोनों के मिजाज़ अब बदल गए हैं। तुम अब बुलबुले सी मस्ती करने लगे हो।"

खैर, नाराज़ हो कर चला गया। पर सिंगल माल्ट की बोतल लाना भी नही भूला था।

कमबख्त ने फिर आधी रात को फ़ोन कर दिया। इस बार बहुत खुश हो कर कह रह था, "भइए, मज़ा आ गया। मैं तू बन गया। तू मैं बन गया।" बहुत कुछ कहता रहा। मैं चुप-चाप सुनता रहा। हँसता भी तो बहुत जोर से है।

क्या मैं, उस दोपहर, बुलबुले का बचपन और तरुणाई जी कर आया था? पता नहीं। मुखौटे अक्सर दोस्तों को भी भ्रम मे डाल देते है।

मुझे मालूम है बबल सच समझता है। मुखौटा लगाने में मेरी तरह माहिर नही है। इसलिए फ़ोन कर मुझे बहला रहा था सुसुरा।

1 comment:

stellar said...

bahaut khoob or wo bhi itni acchi hindi..jiska koi jawab nahi..shukriya meri kalakari ko nawazne ke liye.. :)